Thursday 7 June 2018

सामाजिक समीकरण और भारतीय राजनीति

                

भारत विविधताओं का देश है ।भारतवर्ष की स्वीकार्यता भारत की विविधता को पोषित करती है। सहिष्णुता और असहिष्णुता जैसे शब्द भारतीय समाज में कुछ वर्ष पूर्व से ही प्रचलित हुए हैं वरना भारत ,वह भारत है जिसके लिए चीन के कैडनीन कहते हैं-" बहु भाषाओं ,बहु धर्म और बहु जाति के होने के बावजूद भारत जैसा भाईचारा संपूर्ण विश्व में कहीं नहीं।"

भारतीय राजनीति कहने को तो सभी धर्म, जाति ,संप्रदाय भाषा, वेशभूषा को एक साथ लेकर चलने की बात करती है परंतु चुनाव के समय वह इन्हीं सब विविधताओं को मुद्दा या हथियार बनाकर खुद की नाकामियों को छुपाने के और विपक्ष के तीखे सवालों से लड़ने का अस्त्र बना लेती है।बहरहाल बीते वर्षों के बदलावों में एक बदलाव यह भी है कि विपक्ष नाम मात्र का विपक्ष है और तीखे सवालों जैसी बातें बस पुरानी बातें हैं।तीखे सवालों का रिक्त स्थान अब जुमलों और व्यक्तिगत टिप्पणियों ने भर दिया है।बहरहाल,खेल शुरू होता है टिकट वितरण के समय से ,इस काले खेल में सभी दल अपनी-अपनी प्रतिभागिता करते हैं,कोई भी पार्टी इस घिनौने खेल को खेलने से गुरेज नही करती ।जिस क्षेत्र में जितना अधिक जिस जाति या जिस धर्म का वोटर होता है, पार्टियां उस धर्म या जाति के व्यक्ति को ही उस स्थान से टिकट देती हैं। बंटवारा सिर्फ 1947 में ही नहीं हुआ था हम रोज बंटते हैं। कभी हिंदू-मुस्लिम के नाम पर ,कभी पुरुष-महिला के नाम पर  तो कभी सवर्ण-दलित के नाम पर और यही कारण है कि भारतीय राजनीति आज भी किसी ऐसे नायक की तलाश कर रही है ।जो इन सब मुद्दों से उठकर तथाकथित विकास नहीं अपितु असली विकास को अपना लक्ष्य बनाकर कार्य करे।

2019 के लोकसभा चुनाव आने वाले हैं। सभी पार्टियों ने सामाजिक समीकरण बैठाने शुरू कर दिए हैं।पार्टी अध्यक्ष और पार्टी सुप्रीमो अब अपने पूरे गणितीय ज्ञान को टिकट वितरण में लगा देंगे ।जहां कुर्मी वोट अधिक होगा वहां टिकट कुर्मी को दिया जाएगा ,जहां मुस्लिम वोट अधिक होगा वहां टिकट मुस्लिम कैंडिडेट को दिया जाएगा ,जहां सवर्ण वोट अधिक होगा वहां टिकट सवर्ण कैंडिडेट को दिया जाएगा,और इस खेल को सभी दल अपने-अपने हिसाब से खेलेंगे।


 समस्या सिर्फ भारतीय राजनीति में ही नहीं है ।समस्या हम सब में भी है क्योंकि जब हम वोट डालने जाते हैं तो हम भी इन्हीं सामाजिक समीकरणों के आधार पर अपने मत का प्रयोग करते हैं। हम जाति-धर्म के स्तर से उठ नहीं पाते और यही कारण है जो शायद मजबूर करता है भारतीय राजनीति को इस सामाजिक समीकरण को बैठाने के लिए।इस समीकरण से अगर किसी का नुकसान होता है तो वो इस देश और देश की जनता का होता है क्योंकि भारतीय राजनीति और राजनेता तो दिन दूनी रात चौगुनी गति से विकास कर रहे हैं परंतु विकास के नाम पर देश ज़रूर रेंग रहा है।

इस लोकसभा चुनाव में क्या करे जनता-
चुनाव मात्र एक दिन वोट डालकर अपने जागरूक नागरिक होने का कर्तव्य निभाने का काम नहीं है ।चुनाव का मतलब है कि अगले पांच साल के लिए अपने देश और देशवासियों का भाग्य आप किसी के हाथ में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सौंप देते हैं। ऐसी स्थिति में आप की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि आप अपने राष्ट्र को ऐसे हाथों में सौंपें जिसका लक्ष्य नफरत फैलाना नहीं बल्कि प्यार बांटना हो ।आप अपने राष्ट्र को ऐसे हांथों में सौंपे जो सभी जाति धर्म के लोगों को बिना किसी भेदभाव के साथ लेकर चले। आप अपने राष्ट्र को ऐसे हाथों में सौंपें जो तथाकथित विकास से ऊपर उठकर जमीनी स्तर पर विकास करके दिखाए और अपने राष्ट्र को ऐसे हाथों में सौंपें जो बेरोजगारी ,गरीबी ,भुखमरी, कुपोषण ,शोषण ,अत्याचार, अमानवीयता ,असहिष्णुता,खस्ताहाल चिकित्सा व्यवस्था और मन्द शिक्षा व्यवस्था में सकारात्मक बदलाव करके इन्हें गति देने का कार्य करे।

Wednesday 6 June 2018

किस करवट बैठेगा सियासत का ऊँट?

किस करवट बैठेगा सियासत का ऊँट?
मुकुल सिंह चौहान।

देश आज एक मरुस्थल की तरह नज़र आ रहा है,क्योंकि एक ओर जहां हरे भरे कृषिप्रधान देश में आज किसान कहीं सब्जियां फेंककर सब्जियों का उचित मूल्य ना मिलने का प्रदर्शन कर रहे हैं तो कहीं पेड़ से लटककर आत्महत्या कर रहे हैं।वहीं दूसरी ओर सीमा से सैनिकों के शव रोज़ ही तिरंगे में लिपटकर आ रहे हैं।इसका मतलब यह है कि "जय जवान जय किसान" वाले भारत में ना ही किसान सुरक्षित नज़र आ रहा है और ना ही जवान।
बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार 1995 से 2014 तक भारतवर्ष में 3,54,000 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है और 2014 में किसानों की आत्महत्या के आंकड़े गिनने में बड़ी हेर फेर की गई है,रिपोर्ट के अनुसार आत्महत्या को वर्गों में बाँटकर भ्रम फैलाने की साज़िश की गई है।
NRIOL के आंकड़ों के अनुसार भारत का रक्षा बजट 47.4 अरब डॉलर है।इतना अधिक रक्षा बजट होने के बाद भी सैनिकों को दाल में पानी अधिक होने की शिकायत करनी पड़ती है।किसानों और जवानों के बाद अब "युवा भारत" की भी चर्चा करना आवश्यक है आख़िरकार भारत को युवाओं का देश जो कहा जाता है।भारत का युवा आज बेरोज़गारी के दंश को झेल रहा है नौकरी देने की वादे बस बातें ही हैं और गीतकार इंदीवर पहले ही कह चुके हैं -" कसमें वादें प्यार वफ़ा सब, बातें हैं बातों का क्या ..."
बहरहाल यह कहना भी ग़लत होगा कि यह बीते कुछ समय से ही हो रहा है क्योंकि हमारे देश में स्थितियां कमोवेश हमेशा से ही ऐसी रही हैं।
सरकार चाहे "यू. पी. ए." की रही हो या "एन.डी. ए." की सभी अपने व्यक्तिगत हितों की पूर्ति में ही लगे रहे।अब चुनाव आ रहे हैं सभी नेता आपकी चौखट पर आएंगे उन्हें समझिए,परखिये और पूरी मानसिक चेतना के साथ चिंतन करिए और फिर लोकतंत्र में अपनी भागीदारी से अपने राष्ट्र को मजबूत करिए।
"सब फैसले होते नही सिक्के उछालकर,
ये देश का मामला है ज़रा देखभालकर।।"

Sunday 3 June 2018

सोचो आखिर कब सोचेंगे-डॉ नवाज़ देवबंदी

सोचो आखिर कब सोचेंगे ...

सोचना एक प्रक्रिया है हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जहां विभिन्न धर्म जाति संप्रदाय वेशभूषा और भाषा के साथ लोग प्यार और सौहार्द से जीवन यापन करते हैं ऐसे सभ्य समाज में अगर कोई व्यक्ति संगठन या दल किसी प्रकार की अशांति फैलाने का प्रयास करें तो फिर हमें सोचने की आवश्यकता है हमें समझने की आवश्यकता है और ऐसे लोगों को पूर्ण मानसिक चेतना के साथ जवाब देने की आवश्यकता है।

मिलजुलकर हम दोनों सोचें
दरहम बरहम दोनों सोचें
ज़ख्म का मरहम दोनों सोचें
सोचें , पर हम दोनों सोचें .

घर जलकर राख हो जाएगा
जब सब कुछ ख़ाक हो जाएगा
तब सोचेंगे ?
सोचो ! आखिर कब सोचेंगे .

ईंट और पत्थर राख हुए हैं
दीवार और दर राख हुए हैं
उनके बारे में कुछ सोचो
जिनके छप्पर राख हुए हैं

बे - बाल और पर हो जायेंगे
जब खुद बेघर हो जायेंगे
तब सोचेंगे ?
सोचो ! आखिर कब सोचेंगे .

बेघर और मजबूर मरे हैं
मेहनतकश मजदूर मरे हैं
अपने घर की आग में जल कर
गुमनाम और मशहूर मरे हैं

एक क़यामत दर पर होगी
मौत हमारे सर पर होगी
तब सोचेंगे ?
सोचो ! आखिर कब सोचेंगे .

कैसी बदबू फुट रही है
पत्ती - पत्ती टूट रही है
खुशबू से नाराज़ हैं कांटे
गुल से खुशबू रूठ रही है

खुशबू रुखसत हो जाएगी
बाग़ में वह्शत हो जायेगी
तब सोचेंगे ?
सोचो ! आखिर कब सोचेंगे .

माँ की आहें चीख रही हैं
नन्ही बाहें चीख रही हैं
कातिल अपने हमसाये हैं
सूनी राहें चीख रही हैं

रिश्ते अंधे हो जायेंगे
गूंगे बहरे हो जायेंगे
तब सोचेंगे ?
सोचो आखिर कब सोचेंगे .

     - डॉ नवाज़ देवबंदी .

Saturday 2 June 2018

प्रदूषण,हिंसा और तूतीकोरिन

प्रदूषण,हिंसा और तूतीकोरिन

भारत दुनिया का तेज गति से विकास करने वाला देश है जहां एक ओर भारत टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में विश्व में विख्यात हो रहा है।वहीं दूसरी ओर विश्व के शीर्ष पाँच प्रदूषित देशों की श्रेणी में आने से भारत की छवि खराब हो रही है।

क्या है तूतीकोरिन मामला ?

तूतीकोरिन तमिलनाडू का तटीय शहर है। वहाँ वेदांता इंडसट्रीज़ की स्टरलाइट कंपनी स्थित है जहाँ कॉपर को मेटलर्जिकल प्रक्रिया द्वारा बनाया एवं शुद्ध किया जाता है। कंपनी सभी नियम, कायदे और कानून ताक़ पर रखकर धड़ल्ले से कॉपर का निर्माण कर रही है ।जिससे तूतीकोरिन में प्रदूषण का स्तर लगातार बढ़ रहा है ।स्थानीय लोग इस प्रदूषण के शिकार हो रहे हैं।आर्सेनिक और फ्लोराइड की मात्रा तूतीकोरिन के आसपास के जल में सामान्य से अधिक पाई गई है जो कि स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक है।

मजदूरों के साथ हो रहा अमानवीय व्यवहार-

एक कंपनी को चलाने में मजदूर अपनी जान लगा देता है और ऐसी स्थिति में वह कंपनी से मानवीय व्यवहार की आशा तो कर ही सकता है।स्टरलाइट कंपनी में काम करने वाले कई मजदूरों ने अपने हाथ-पैर खो दिए हैं।इन दुर्घटनाओं का सामना करने के बाद भी उन मजदूरों को कंपनी की तरफ से किसी भी प्रकार की कोई सहायता उपलब्ध नही कराई गई।कंपनी में काम करने वाले मजदूरों के साथ इस तरह का व्यवहार निःसंदेह अमानवीय है।

मद्रास हाइकोर्ट कर रहा है जाँच-

NHRC(National Human Rights Commission Of India) ने स्टरलाइट कंपनी पर प्रतिबंध लगा दिया है और तूतीकोरिन में हुई हिंसा की जाँच मद्रास हाइकोर्ट और रिटायर्ड जज के हांथों में सौंप दी गयी है।
यह मामला सिर्फ एक प्रदेश तक सीमित नही है अपितु सम्पूर्ण देश को इसपर विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि एक लोकतांत्रिक देश में जनता की हर जायज़ मांग को पूरा करना सरकार की नैतिक ज़िम्मेदारी है।

प्रदूषण,अमानवीयता और तूतीकोरिन

प्रदूषण,अमानवीयता और तूतीकोरिन

भारत दुनिया का तेज गति से विकास करने वाला देश है जहां एक ओर भारत टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में विश्व में विख्यात हो रहा है।वहीं दूसरी ओर विश्व के शीर्ष पाँच प्रदूषित देशों की श्रेणी में आने से भारत की छवि खराब हो रही है।

क्या है तूतीकोरिन मामला ?

तूतीकोरिन तमिलनाडू का तटीय शहर है। वहाँ वेदांता इंडसट्रीज़ की स्टरलाइट कंपनी स्थित है जहाँ कॉपर को मेटलर्जिकल प्रक्रिया द्वारा बनाया एवं शुद्ध किया जाता है। कंपनी सभी नियम, कायदे और कानून ताक़ पर रखकर धड़ल्ले से कॉपर का निर्माण कर रही है ।जिससे तूतीकोरिन में प्रदूषण का स्तर लगातार बढ़ रहा है ।स्थानीय लोग इस प्रदूषण के शिकार हो रहे हैं।आर्सेनिक और फ्लोराइड की मात्रा तूतीकोरिन के आसपास के जल में सामान्य से अधिक पाई गई है जो कि स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक है।

मजदूरों के साथ हो रहा अमानवीय व्यवहार-

एक कंपनी को चलाने में मजदूर अपनी जान लगा देता है और ऐसी स्थिति में वह कंपनी से मानवीय व्यवहार की आशा तो कर ही सकता है।स्टरलाइट कंपनी में काम करने वाले कई मजदूरों ने अपने हाथ-पैर खो दिए हैं।इन दुर्घटनाओं का सामना करने के बाद भी उन मजदूरों को कंपनी की तरफ से किसी भी प्रकार की कोई सहायता उपलब्ध नही कराई गई। कंपनी में काम करने वाले मजदूरों के साथ इस तरह का व्यवहार निःसंदेह अमानवीय है।

मद्रास हाइकोर्ट कर रहा है जाँच-

NHRC(National Human Rights Commission Of India) ने स्टरलाइट कंपनी पर प्रतिबंध लगा दिया है और तूतीकोरिन में हुई हिंसा की जाँच मद्रास हाइकोर्ट और रिटायर्ड जज के हांथों में सौंप दी गयी है।
यह मामला सिर्फ एक प्रदेश तक सीमित नही है अपितु सम्पूर्ण देश को इसपर विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि एक लोकतांत्रिक देश में जनता की हर जायज़ मांग को पूरा करना सरकार की नैतिक ज़िम्मेदारी है।

चोर को सज़ा कानून नहीं पब्लिक देती है-थानाध्यक्ष

चोर को सज़ा कानून नहीं पब्लिक देती है-थानाध्यक्ष संविधान ,न्यायव्यवस्था और कानून में यक़ीन करने वाले लोग बहुत कम बचे हैं। इस संवैधानिक व्...