Sunday 3 June 2018

सोचो आखिर कब सोचेंगे-डॉ नवाज़ देवबंदी

सोचो आखिर कब सोचेंगे ...

सोचना एक प्रक्रिया है हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जहां विभिन्न धर्म जाति संप्रदाय वेशभूषा और भाषा के साथ लोग प्यार और सौहार्द से जीवन यापन करते हैं ऐसे सभ्य समाज में अगर कोई व्यक्ति संगठन या दल किसी प्रकार की अशांति फैलाने का प्रयास करें तो फिर हमें सोचने की आवश्यकता है हमें समझने की आवश्यकता है और ऐसे लोगों को पूर्ण मानसिक चेतना के साथ जवाब देने की आवश्यकता है।

मिलजुलकर हम दोनों सोचें
दरहम बरहम दोनों सोचें
ज़ख्म का मरहम दोनों सोचें
सोचें , पर हम दोनों सोचें .

घर जलकर राख हो जाएगा
जब सब कुछ ख़ाक हो जाएगा
तब सोचेंगे ?
सोचो ! आखिर कब सोचेंगे .

ईंट और पत्थर राख हुए हैं
दीवार और दर राख हुए हैं
उनके बारे में कुछ सोचो
जिनके छप्पर राख हुए हैं

बे - बाल और पर हो जायेंगे
जब खुद बेघर हो जायेंगे
तब सोचेंगे ?
सोचो ! आखिर कब सोचेंगे .

बेघर और मजबूर मरे हैं
मेहनतकश मजदूर मरे हैं
अपने घर की आग में जल कर
गुमनाम और मशहूर मरे हैं

एक क़यामत दर पर होगी
मौत हमारे सर पर होगी
तब सोचेंगे ?
सोचो ! आखिर कब सोचेंगे .

कैसी बदबू फुट रही है
पत्ती - पत्ती टूट रही है
खुशबू से नाराज़ हैं कांटे
गुल से खुशबू रूठ रही है

खुशबू रुखसत हो जाएगी
बाग़ में वह्शत हो जायेगी
तब सोचेंगे ?
सोचो ! आखिर कब सोचेंगे .

माँ की आहें चीख रही हैं
नन्ही बाहें चीख रही हैं
कातिल अपने हमसाये हैं
सूनी राहें चीख रही हैं

रिश्ते अंधे हो जायेंगे
गूंगे बहरे हो जायेंगे
तब सोचेंगे ?
सोचो आखिर कब सोचेंगे .

     - डॉ नवाज़ देवबंदी .

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